Tuesday, April 28, 2020

Rudri Adhyay 1,2,3

"रुद्राष्टाध्यायी : रुद्राभिषेक का वैदिक मंत्र स्रोत, कुछ नमक-चमक सहित"



श्रावण मास आ रहा है।
आस्थावान शिव मंदिरों में जलाभिषेक करेंगे।
कर्मकांडी वैदिक मंत्रों के साथ रुद्राभिषेक.
इसमें सामान्यतः रुद्राष्टाध्यायी का पाठ होता है।

रुद्राष्टाध्यायी शुक्ल यजुर्वेद का अंश है, अत: इसको शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भी कहते हैं। रुद्राष्टाध्यायी दो शब्दों से बना है-
रुद्र अर्थात् शिव और अष्टाध्यायी अर्थात् आठ अध्यायों वाला.

रुद्राष्टाध्यायी में कुल दस अध्याय हैं, इनमें आठ को ही मुख्य माना जाता है। इसके अंत में शान्त्यध्याय: नामक नवम तथा स्वस्तिप्रार्थनामन्त्राध्याय: नामक दशम अध्याय भी हैं।

अध्याय वार श्लोकों की संख्या की सूची निम्नांकित है---
प्रथम अध्याय = 10 श्लोक
द्वितीय अध्याय = 22 श्लोक
तृतीय अध्याय = 17 श्लोक
चतुर्थ अध्याय = 17 श्लोक
पंचम अध्याय = 66 श्लोक
षष्ठम अध्याय = 8 श्लोक
सप्तम अध्याय = 7 श्लोक
अष्टम अध्याय = 29 श्लोक
शान्त्यध्याय = 24 श्लोक
स्वस्तिप्रार्थनामंत्राध्याय = 13 श्लोक

रुद्राष्टाध्यायी को शिव आराधना का प्रमुख ग्रंथ माना जाता है. रुद्राभिषेक के समय इसका पाठ किया जाना अनिवार्य माना जाता है।

रुद्राष्टाध्यायी में रुद्र की आराधना प्रमुख है, किंतु वह रुद्र तक सीमित नहीं है। प्रत्येक अध्याय में अलग-अलग देवता हैं। रुद्राष्टाध्यायी अनेक महत्वपूर्ण दार्शनिक सूक्तों व कर्मकांडीय मंत्रों का स्रोत रहा है।

इसके प्रथम अध्याय में शिवसंकल्पसूक्त प्रमुख है. इसके प्रारंभ में गणेशावाहन का प्रसिद्ध "गणानां त्वा गणपति" मंत्र है. पाँचवें से दसवें मंत्र में शिवसंकल्पसूक्त है।

द्वितीय अध्याय में कुल 22 वैदिक श्लोक हैं, जिनमें पुरुषसूक्त (मुख्यत: 16 श्लोक) सर्वप्रमुख है। इसके अंतिम छ: मंत्र उत्तरनारायण सूक्त के रूप में प्रसिद्ध हैं। द्वितीय अध्याय में ही लक्ष्मी पूजन का प्रसिद्ध मंत्र "श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च" मंत्र आता है।

तृतीय अध्याय अप्रतिरथसूक्त के नाम से प्रसिद्ध है। यह इंद्र को समर्पित है। अप्रतिरथ ऋषि होने के कारण अप्रतिरथसूक्त कहा गया है।

चतुर्थ अध्याय मैत्र सूक्त के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें सूर्य का वर्णन है।
इसमें ही सूर्य का प्रसिद्ध मंत्र "आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो" वर्णित है।

पंचम अध्याय में रुद्र सूक्त है, इसमें कुल 66 श्लोक हैं। अध्याय को चमक अध्याय भी कहते हैं, क्योंकि इसमें नमस्ते शब्द से प्रारंभ होता है और उसी की पुनरावृत्ति बारंबार होती है। इसे शतरुद्रिय भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें रुद्र के शतश: रूपों का वर्णन है। कुछ के अनुसार शतरुद्रिय सौ मंत्रों की समष्टि है, जिसमें अन्य अध्यायों के मंत्र भी सम्मिलित होते हैं।

छठें अध्याय को महच्छिर के रूप में जाना जाता है। इसक प्रथम मंत् में सोम की स्तुति है। प्रसिद्ध महामृत्युञ्जय मंत्र "त्र्यंबकं यजामहे" इसके पंचम श्लोक के रूप में ही मिलता है।

सप्तम अध्याय में 7 श्लोकों की आरण्यक श्रुति है. प्रायश्चित्त हवन आदि में इसका उपयोग होता है। इस अध्याय को जटा भी कहते हैं। इसके कुछ मंत्रों का प्रयोग अंत्येष्टि में चिताहोम में भी किया जाता है। यह अध्याय मरुत् को समर्पित है।

अष्टम अध्याय को चमक अध्याय भी कहते हैं. माना जाता है कि प्रत्येक मंत्र में 'चकार' व 'मे' का बाहुल्य होने से इन्हें "चमक" कहा गया.

नवम व दशम अध्याय मूलतः शांतिपाठ व स्वस्ति वाचन के अध्याय हैं, अत: उनकी पृथक् गणना नहीं होती है।

रुद्रपाठ में पंचम व अष्टम अध्याय के विशेष पाठ का भी प्रावधान है। इस कारण इन्हें "नमक-चमक" भी कहा जाता है।

रुद्राष्टाध्यायी के किस पाठ को रुद्राभिषेक में प्रयुक्त किया जाए,
इस पर मतैक्य नहीं है।
रुद्राष्टाध्यायी का सामान्य पूर्ण पाठ षडंगपाठ कहलाता है।
हर अंग पूरा हो.

इसके अतिरिक्त एकादशिनी रुद्री का पाठ है,
जिसमें केवल पंचम व अष्टम अध्याय के विशेष पाठ का भी प्रावधान है। ये अध्याय क्रमशः "नमक" व "चमक" कहलाते हैं,
इस कारण इन्हें "नमक-चमक" पाठ भी कहा जाता है।
यहाँ "नमक-चमक" संस्कृत के शब्द हैं.

यदि एकादशिनी रुद्री का पाठ 11 बार हो,
तो लघुरुद्र कहलाता है।
यदि पाठ 121 बार हो,
तो महारुद्र कहलाता है।
यदि पाठ 1331 बार हो,
तो अतिरुद्र कहलाता है।

तो स्वागत करते हैं,
श्रावण का,
शिव के अभिषेक के साथ,
कुछ नमक और चमक के साथ.
साथ ही इस सत्य कथा के साथ भी.
मराठी संत एकनाथ की गाथा है,
पशुपति के अभिषेक की.

प्रसिद्ध शिव मंदिर में जल चढाने के लिए काँवरियों का काफिला जा रहा था.
संत एकनाथ भी चल पड़े.
रास्ता पहाड़ी था,
लोगों ने जाने के लिए खच्चरों-टट्टुओं का सहारा लिया.
राह में पानी न मिला.
तीर्थयात्रियों ने अपने साथ का पानी पीकर प्यास बुझाई,
मगर पशु प्यासे रह गए.

संत से रहा न गया,
उन्होंने काँवर के कलश का जल खच्चरों को पिला दिया.
वे शिव मंदिर तक खाली हाथ गए
और
खाली हाथों से ही शिवलिंग का अभिषेक किया.

कहते हैं,
शिवलिंग स्वयं द्रवित हो उठा
और
पहली बार शिव ने अपने ही जल से अपना जलाभिषेक किया.
एक गुरु-गंभीर आकाशवाणी हुई-
"बहुत दिनों बाद ज़ल मिला, आज तृप्ति मिली !"

तीर्थयात्री-पुरोहित सभी चौंके-
"इतने सारे कांवरियों ने जो जल चढ़ाया, वो?"

आकाशवाणी पुनः गूँजी-
"जो जल 'भोले-भाले पशु' तक ही न पहुँच पाया,
वो भला 'भोलेनाथ पशुपति' तक कैसे पहुँच पाता?"

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